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सारंडा : पुलिस नक्सलियों से लड़ रही, लेकिन विकास अधिकारी कहां हैं?

On: August 24, 2025 8:27 PM
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नक्सलियों के गढ़ को पुलिस-सीआरपीएफ ने हिला डाला, पर 25 साल बाद भी जंगलवासी बुनियादी सुविधाओं से वंचित

✍️ विशेष रिपोर्ट : शैलेश सिंह


सवाल यह है—जिम्मेदारी सिर्फ पुलिस की या विकाश योजना से जुड़े अफसरों की भी?

पश्चिम सिंहभूम जिले के सारंडा, कोल्हान और पोड़ाहाट जंगल को माओवादी नक्सलियों से मुक्त कराने की जिम्मेदारी आखिर किसकी है? क्या यह केवल पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों की ड्यूटी है, या फिर प्रशासनिक व विकास पदाधिकारियों की भी?

जवान अपनी जान हथेली पर रखकर जंगल में घुसते हैं, नक्सलियों के खिलाफ गोलियां चलाते हैं, लगातार शहादत दे रहे हैं। परंतु सवाल उठता है कि विकास से जुड़े अधिकारी—जिन्हें गांवों तक सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल, बिजली और रोज़गार योजनाएं पहुंचानी हैं—क्या वे कभी इन इलाकों में झांककर देख भी रहे हैं कि ग्रामीण किस दुर्दशा में जी रहे हैं?


25 साल बाद भी नहीं हुआ सारंडा का विकास

15 नवम्बर 2000 को झारखंड राज्य का गठन हुआ। लगभग 25 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन एशिया के सबसे बड़े सालवन सारंडा के गांव आज भी विकास से कोसों दूर हैं।

कुदलीबाद–कुमडीह सड़क ?

90 से अधिक गांवों में रहने वाले आदिवासी और मूलवासी आज भी चिकित्सा, शिक्षा, पेयजल, बिजली, यातायात, संचार, सिंचाई और रोज़गार जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए तरसते हैं।

सरकारें—चाहे एनडीए हो या यूपीए—सिर्फ वोट बैंक के रूप में इन ग्रामीणों का इस्तेमाल करती रही हैं। चुनावी रैलियों में वादे होते हैं, पर चुनाव खत्म होते ही सारंडा का नाम तक लेना नेताओं को गवारा नहीं।


डीएमएफटी फंड बना भ्रष्टाचार का अड्डा

साल 2011-12 से जब सारंडा की खदानों से होने वाली कमाई जिला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट (DMFT) में जमा होनी शुरू हुई, तब लोगों को उम्मीद जगी थी कि अब जंगल के गांव बदलेंगे।

अस्पताल भवन लेकिन डॉक्टर ?

हर साल हजारों करोड़ रुपए की राशि आई, लेकिन यह पैसा ग्रामीणों तक पहुंचने के बजाय नेताओं, अधिकारियों और ठेकेदारों के लिए “कुबेर का खजाना” बन गया।

  • अस्पताल बनने चाहिए थे, पर एक ढंग का स्वास्थ्य केंद्र तक नहीं।
  • सड़कें और पुल-पुलिया बननी चाहिए थीं, पर कई गांव आज भी बरसात में टापू बन जाते हैं।
  • शुद्ध पेयजल के नाम पर जलापूर्ति योजना शुरू हुई, पर भ्रष्टाचार ने सब निगल लिया।

ग्रामीणों की आवाज़ खोखले वादों और फाइलों के ढेर में दबा दी गई।


ग्रामीणों की मूल मांगें—आज भी अधूरी

सारंडा के लोग वर्षों से मांग कर रहे हैं कि:

  • डीएमएफटी फंड से 500 बेड का सुपर स्पेशलिटी अस्पताल बने।
  • गांवों को पेयजल मिले, शुद्ध और नियमित।
  • हर गांव में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए शिक्षक और स्कूल हों।
  • बिजली हर घर तक पहुंचे और स्थायी हो।
  • वन ग्रामों को राजस्व गांव का दर्जा मिले और वनाधिकार पट्टा मिले।
  • खदानों में रोज़गार स्थानीय लोगों को प्राथमिकता से मिले।

लेकिन आज तक यह सब सपना ही बना हुआ है।

कोलाइबुरु सड़क ?

स्वास्थ्य और शिक्षा की हालत शर्मनाक

सारंडा में स्वास्थ्य केंद्र हैं तो दवा नहीं, डॉक्टर नहीं। एक भी एम्बुलेंस नहीं। बीमार लोग आज भी झाड़-फूंक और अंधविश्वास के सहारे जीते हैं।

शिक्षा के नाम पर कई स्कूल तो बनाए गए, लेकिन उनमें पर्याप्त शिक्षक नहीं। बच्चों को उच्च शिक्षा का सपना दिखाकर सरकारें बस कागजों पर आंकड़े गिनती हैं।

डब्लूटीपी और जालमीनार लेकिन पानी कहां?

बिजली, सड़क और पानी—जनता के लिए अब भी सपना

कई गांव आज भी अंधेरे में हैं। जहां बिजली पहुंची भी है, वहां कटौती का आलम यह है कि हफ्ते में दो-तीन दिन ही रोशनी दिखती है।

बरसात में आधे से अधिक गांव सड़क और पुल की कमी के कारण पूरी तरह कट जाते हैं। पेयजल योजना भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है।


रोज़गार और पलायन—सरकार की सबसे बड़ी विफलता

जब खदानें चल रही थीं, तो रोजगार बाहरी लोगों को दिया गया। अब खदानें बंद हैं, तो स्थानीय युवाओं के पास पलायन के अलावा कोई रास्ता नहीं।

जंगल के लोग आज भी वनोपज पर निर्भर हैं, लेकिन उसके लिए बाजार और उचित मूल्य तक तय नहीं किया गया।


सारंडा एक्शन प्लान—कागजों में ही सीमित

2011 में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने बड़े जोर-शोर से सारंडा एक्शन प्लान शुरू किया था।

  • 454 करोड़ रुपए खर्च होने की बात कही गई।
  • हज़ारों साइकिल, लालटेन, ट्रांजिस्टर बांटे गए।
  • घर, सड़क, पुल, स्वास्थ्य इकाई और जल योजना की घोषणा हुई।

लेकिन ज़मीन पर इसका क्या असर हुआ? सरकार के पास ही कोई स्पष्ट रिपोर्ट नहीं है। आज भी ग्रामीण पूछ रहे हैं—“कहाँ गया वो पैसा?”


नक्सलियों का इतिहास और पुलिस की जंग

सारंडा में नक्सलियों की दस्तक 2001 में हुई। बिटकिलसोय गांव से शुरू हुआ नक्सली तांडव वर्षों तक चलता रहा।

  • 2002 में बिटकिलसोय हत्याकांड में 17 पुलिसकर्मी शहीद हुए।
  • 2004 में बालिबा में 30 जवान शहीद हुए।
  • 2006 में थलकोबाद में 12 सीआरपीएफ जवान आईईडी विस्फोट में शहीद हुए।
  • वन विभाग के अफसरों की हत्याएं, खदानों में लेवी की वसूली, ओपी पर हमला—नक्सली आतंक का सिलसिला चलता रहा।

2011 तक हालात यह थे कि स्वतंत्रता दिवस पर गांवों में तिरंगे की जगह काला झंडा फहरता था।

मारा गया छत्तीसगढ़ का नक्सली

 

लेकिन ऑपरेशन “ऐनाकोंडा” के बाद पुलिस और सीआरपीएफ ने नक्सलियों की कमर तोड़ दी। अब नक्सली यहां बड़ी घटना को अंजाम नहीं दे पा रहे। उनके कैंप ध्वस्त हो रहे हैं, हथियारों के जखीरे बरामद हो रहे हैं।


पुलिस-सीआरपीएफ ने किया चमत्कार

आज स्थिति यह है कि नक्सलियों की हर चाल विफल हो रही है। पुलिस और सीआरपीएफ ने अपनी कड़ी मेहनत और बलिदान से सारंडा को खौफ के अंधकार से बाहर निकाला है।

  • गांवों में तिरंगा फिर लहराने लगा है।
  • नक्सली छापामारियों में लगातार मारे जा रहे हैं।
  • हथियारों और विस्फोटकों का जखीरा बरामद हो रहा है।

यह साबित करता है कि जवानों ने अपना काम किया है।


पर विकास अफसर क्यों नहीं कर पाए अपना काम?

अगर पुलिस और सीआरपीएफ ने गोली और खून बहाकर नक्सलियों को पीछे धकेल दिया, तो विकास अधिकारी क्यों आज तक एक अस्पताल, एक स्थायी सड़क, एक ठोस जल योजना तक नहीं ला पाए?

क्या ग्रामीणों का हक़ सिर्फ वोट देना है? क्या उनकी समस्याओं का समाधान करना अफसरों का कर्तव्य नहीं?


जनता का सवाल—कब मिलेगा असली विकास?

सारंडा की जनता का सब्र अब टूट रहा है।

  • वो जानती है कि पुलिस-सीआरपीएफ ने जान देकर रास्ता साफ किया।
  • अब जिम्मेदारी सरकार और विकास पदाधिकारियों की है कि वे गांव-गांव जाकर योजनाओं को धरातल पर उतारें।

अगर ऐसा नहीं हुआ, तो यह साबित होगा कि सरकार नक्सलियों से तो लड़ सकती है, लेकिन अपने ही लोगों की समस्याओं से लड़ने की हिम्मत नहीं रखती।


निष्कर्ष : नक्सली हार रहे, लेकिन जनता अब भी हार रही

सारंडा में नक्सलियों का प्रभाव कम हुआ है। पुलिस और सीआरपीएफ ने जो जंग लड़ी है, उसकी सराहना हर कोई करता है। लेकिन विकास के नाम पर सिर्फ फाइलों और योजनाओं का खेल चल रहा है।

ग्रामीणों के लिए आज भी अस्पताल सपना है, सड़क सपना है, रोजगार सपना है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि—सारंडा में नक्सलियों से तो पुलिस लड़ गई, पर अफसरों और नेताओं से कौन लड़ेगा?

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सिंहभूम हलचल न्यूज़ एक स्थानीय समाचार मंच है, जो पश्चिमी सिंहभूम, झारखंड से सटीक और समय पर समाचार प्रदान करने के लिए समर्पित है। यह राजनीति, अपराध, मौसम, संस्कृति और सामुदायिक मुद्दों को हिंदी में कवर करता है।

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