सारंडा के बराइबुरू स्कूल का हाल – सरकार सोई, जनता मजबूर
रिपोर्ट: शैलेश सिंह
गरीबों की जेब से शिक्षा की कीमत
झारखंड जैसे खनिज–संपन्न राज्य में शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधा गरीब जनता के चंदे पर चल रही है। पश्चिम सिंहभूम जिले के गहरे जंगल और लौह अयस्क की खदानों से घिरे बराइबुरू गांव का राजकीय उत्क्रमित उच्च विद्यालय इसकी जीवंत मिसाल है।
इस विद्यालय में कुल 169 बच्चे पढ़ते हैं— 85 छात्र और 84 छात्राएं। लेकिन सरकारी शिक्षक सिर्फ दो हैं।
सरकारी शिक्षक:
- राजेश कुमार (प्रधानाचार्य)
- नीलम दोराइबुरु (शिक्षिका)
गांव की समिति द्वारा नियुक्त शिक्षक:
- कमला बारी (शिक्षिका)
- गौरी महाकुड़ (शिक्षिका)
फाउंडेशन द्वारा नियुक्त शिक्षक:
- जिंगी चातर (हो भाषा, टाटा स्टील फाउंडेशन द्वारा नियुक्त)
ग्रामीणों के सहयोग से नियुक्त शिक्षक:
- रोशनी पान (समुदाय द्वारा वेतन पर रखी गई शिक्षिका)
यानी 6 शिक्षकों की टीम में से सिर्फ 2 सरकारी हैं, बाकी का खर्च गरीब ग्रामीणों के सहयोग पर टिका है।

ग्रामीणों का संकल्प : भूखे रहेंगे पर बच्चे पढ़ेंगे
बराइबुरू और टाटीबा गांव के लोग भले ही बेरोज़गार और गरीबी से जूझ रहे हों, लेकिन शिक्षा को लेकर उनका जज़्बा अद्भुत है।
- ग्रामीणों ने आपसी सहयोग राशि से नई शिक्षिका रोशनी पान को मासिक वेतन पर रखा है। इससे पहले से बराईबुरू–टाटीबा ग्राम विकाश समिति द्वारा दो शिक्षिकाओं को नियमित रखा गया है।
- यह शिक्षिका न केवल बच्चों को पढ़ाती हैं, बल्कि अनियमित बच्चों को स्कूल तक लाने का अभियान भी चलाती हैं।
- एसएमसी सदस्य भरत हेमब्रम हर महीने ₹500 की सहायता देते हैं।
- बाकी ग्रामीण अपनी क्षमता अनुसार मदद करते हैं।
विद्यालय प्रबंधन समिति : गांव का अपना मंत्रालय
विद्यालय प्रबंधन समिति (SMC) की बैठक में 32 लोग शामिल हुए। इस समिति ने ही स्कूल की जिम्मेदारी उठाई है। बैठक में सहयोग राशि, पैसों का आय–व्यय, शिक्षकों का वेतन आदि पर चर्चा हुआ।

मुख्य सदस्य:
- नंदलाल कैतवार – अध्यक्ष
- लालबाबू दास – सदस्य
- भारत हेमब्रम – सदस्य
- ललिता दास – सदस्य
- सुभासिनी भेंगरा – सदस्य
अन्य सदस्य और सहयोगी ग्रामीण:
- सुस्ती सुंदर दास
- सोनाराम सुंडी
- संतोष नायक
- गांव के अन्य प्रतिनिधि और अभिभावक
ये लोग न केवल पढ़ाई की चर्चा करते हैं, बल्कि यह तय भी करते हैं कि किस महीने किसे कितना पैसा देना है ताकि शिक्षक का वेतन समय पर हो सके।

शिक्षा का सरकारी ढोंग : खदानें बंद, खजाना खाली नहीं
बराइबुरू का इलाका लौह अयस्क खदानों से घिरा है। कभी डीएमएफटी (जिला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट) फंड से हर साल सैकड़ों करोड़ रुपए आते थे। आज भी यह राशि आ रही है, लेकिन गांव के स्कूलों तक इसका फायदा नहीं पहुंच रहा।
- डीएमएफटी का उद्देश्य था खदान प्रभावित इलाकों में शिक्षा और स्वास्थ्य सुधारना।
- लेकिन हकीकत यह है कि बराइबुरू जैसे गांव में शिक्षकों की भारी कमी को ग्रामीण अपनी जेब से पूरा कर रहे हैं।
गरीबी और पलायन के बीच शिक्षा की लड़ाई
- खदानों के बंद होने से बेरोजगारी और पलायन तेज़ हुआ है।
- हजारों परिवार रोज़गार की तलाश में घर छोड़ रहे हैं।
- फिर भी बराइबुरू के लोग बच्चों की पढ़ाई के लिए तन-मन-धन से जुटे हुए हैं।
सरकारी लापरवाही : सवालों के घेरे में व्यवस्था
सबसे बड़ा सवाल यही है—आखिर क्यों गरीब जनता को सरकारी स्कूल के लिए चंदा देना पड़ रहा है?
- क्या सरकार अपनी जिम्मेदारी से हाथ झाड़ चुकी है?
- डीएमएफटी और शिक्षा मद में आने वाला पैसा कहां जा रहा है?
- खनिज से भरे झारखंड में भी बच्चों की पढ़ाई क्यों गरीबों की जेब पर टिकी है?
सिर्फ बराइबुरू नहीं, पूरे सारंडा की हकीकत
बराइबुरू का स्कूल तो सिर्फ एक उदाहरण है। सारंडा जंगल और नक्सल प्रभावित इलाकों के दर्जनों स्कूलों में यही हालात हैं।
- कई स्कूलों में भवन जर्जर हैं।
- कई जगह शिक्षक महीनों तक नहीं आते।
- बच्चों को मिड डे मील तक सही से नहीं मिलता।

निष्कर्ष : शिक्षा बचाओ, बच्चों का भविष्य बचाओ
बराइबुरू गांव का संघर्ष पूरे झारखंड के लिए आईना है। अगर खनिज–समृद्ध क्षेत्र में भी लोग चंदा जुटाकर स्कूल चला रहे हैं, तो यह सवाल सीधे सरकार और शिक्षा विभाग पर है।